आज हम एक ऐसी किताब की बात करेंगे जो आपको ये दिखाएगी कि हम कितने ‘प्रिडिक्टेबली इर्रैशनल’ हैं, यानी कितने अंदाज़ से ग़लत डिसीज़न लेते हैं – डैन एरीली की “प्रिडिक्टेबली इर्रैशनल”। ये सिर्फ़ एक किताब नहीं, बल्कि एक आई-ओपनर है जो हमें अपनी सोच के बारे में, अपने डिसीज़न्स के बारे में, और अपने बिहेवियर के बारे में बहुत कुछ सिखाती है। इस वीडियो में हम इस बुक के दस सबसे ज़रूरी लेसन्स को समझेंगे, एकदम सिंपल हिंदी में, ताकि आप भी समझ सकें कि आप कब और कैसे ‘इर्रैशनल’ हो जाते हैं। तो चलिए, शुरू करते हैं इस माइंड-ब्लोइंग जर्नी को!
लेसन 1 : द रिलेटिविटी ट्रैप
दोस्तों, “प्रिडिक्टेबली इर्रैशनल” का सबसे पहला और बहुत ही इंटरेस्टिंग लेसन है ‘द रिलेटिविटी ट्रैप’, यानी सापेक्षता का जाल। डैन एरीली हमें ये दिखाते हैं कि हम अक्सर चीज़ों को एब्सोल्यूट टर्म्स में नहीं, बल्कि रिलेटिव टर्म्स में जज करते हैं, यानी हम एक चीज़ को दूसरी चीज़ से कंपेयर करके उसकी वैल्यू डिसाइड करते हैं। ये एक नेचुरल ह्यूमन टेन्डेन्सी है, लेकिन ये हमें कई बार ग़लत डिसीज़न्स लेने पर मजबूर कर सकती है। एरीली एक बहुत ही फेमस एग्ज़ाम्पल देते हैं ‘द इकोनॉमिस्ट’ मैगज़ीन के सब्सक्रिप्शन ऑफर्स का। मैगज़ीन तीन तरह के सब्सक्रिप्शन ऑफर्स देती थी: ऑनलाइन सब्सक्रिप्शन, प्रिंट सब्सक्रिप्शन, और प्रिंट प्लस ऑनलाइन सब्सक्रिप्शन। इंटरेस्टिंग बात ये थी कि प्रिंट सब्सक्रिप्शन की प्राइस प्रिंट प्लस ऑनलाइन सब्सक्रिप्शन जितनी ही थी। यानी, आपको सेम प्राइस में या तो सिर्फ़ प्रिंट मिलता, या प्रिंट के साथ ऑनलाइन भी। एरीली ने पाया कि ज़्यादातर लोग प्रिंट प्लस ऑनलाइन सब्सक्रिप्शन चूज़ करते थे, क्योंकि वो ज़्यादा ‘वैल्यू’ का लगता था, भले ही उन्हें सिर्फ़ ऑनलाइन सब्सक्रिप्शन में इंटरेस्ट हो। ये ‘रिलेटिविटी ट्रैप’ का एक क्लासिक एग्ज़ाम्पल है। हम एक ‘डेकोय’ ऑप्शन क्रिएट करके लोगों को एक स्पेसिफिक डिसीज़न की तरफ़ पुश कर सकते हैं। इसे एक शॉपिंग के एग्ज़ाम्पल से समझते हैं। मान लीजिए, आप एक टीवी खरीदने गए हैं। आपको दो ऑप्शन्स दिखाए जाते हैं: एक नॉर्मल टीवी और एक ‘डीलक्स’ टीवी जो थोड़ा ज़्यादा महंगा है। फिर आपको एक तीसरा ऑप्शन दिखाया जाता है: एक ‘सुपर डीलक्स’ टीवी जो और भी ज़्यादा महंगा है, लेकिन उसमें कुछ एक्स्ट्रा फ़ीचर्स हैं जो आपको ज़्यादा इम्पोर्टेन्ट नहीं लगते। एरीली कहते हैं कि ये ‘सुपर डीलक्स’ टीवी एक ‘डेकोय’ का काम करता है। ये आपको ‘डीलक्स’ टीवी को ज़्यादा अट्रैक्टिव बनाता है, क्योंकि वो ‘सुपर डीलक्स’ के कंपैरिज़न में ‘रीज़नेबल’ लगता है, भले ही वो नॉर्मल टीवी से ज़्यादा महंगा हो। तो दोस्तों, इस लेसन से हम सीखते हैं कि हमें चीज़ों को सिर्फ़ रिलेटिव टर्म्स में नहीं, बल्कि एब्सोल्यूट टर्म्स में भी देखना चाहिए। यही है ग़लत डिसीज़न्स अवॉइड करने का, और स्मार्ट चॉइसेस बनाने का रास्ता। जैसे एक कम्पास हमें नॉर्थ की तरफ़ गाइड करता है, वैसे ही हमें भी अपनी रैशनल थिंकिंग को यूज़ करना चाहिए अपने डिसीज़न्स लेने में।
लेसन 2 : द सप्लाई एंड डिमांड इल्यूजन
दोस्तों, पिछले लेसन में हमने ‘रिलेटिविटी ट्रैप’ के बारे में बात की जो हमें ग़लत कंपैरिज़न्स करने पर मजबूर करता है। अब हम एक और इंटरेस्टिंग कॉन्सेप्ट पर बात करेंगे जो हमारे परचेज़िंग डिसीज़न्स को इम्पैक्ट करता है – द सप्लाई एंड डिमांड इल्यूजन, यानी आपूर्ति और मांग का भ्रम। हम अक्सर ये मानते हैं कि किसी चीज़ की प्राइस उसकी सप्लाई और डिमांड से डिसाइड होती है, यानी अगर किसी चीज़ की सप्लाई कम है और डिमांड ज़्यादा है, तो उसकी प्राइस ज़्यादा होगी, और अगर सप्लाई ज़्यादा है और डिमांड कम है, तो उसकी प्राइस कम होगी। ये एक बेसिक इकोनॉमिक प्रिंसिपल है, लेकिन एरीली हमें ये दिखाते हैं कि ये हमेशा इतना सिंपल नहीं होता। कई बार, आर्बिट्रेरी फ़ैक्टर्स भी प्राइस को इम्पैक्ट कर सकते हैं, जैसे ‘एंकरिंग’। ‘एंकरिंग’ का मतलब है जब हम किसी चीज़ की पहली प्राइस को एक ‘एंकर’ की तरह यूज़ करते हैं, और फिर आगे के डिसीज़न्स उस ‘एंकर’ के बेसिस पर लेते हैं। एरीली एक एग्ज़ाम्पल देते हैं ब्लैक पर्ल्स का। शुरू में, ब्लैक पर्ल्स की डिमांड बहुत कम थी, क्योंकि लोगों को उनके बारे में पता नहीं था, और उन्हें लगता था कि वो ज़्यादा वैल्यूएबल नहीं हैं। लेकिन फिर एक मार्केटर ने उन्हें हाई-एंड ज्वेलेरी स्टोर्स में डिस्प्ले किया, और उनकी प्राइस बहुत ज़्यादा सेट कर दी। इससे लोगों को लगा कि ब्लैक पर्ल्स बहुत एक्सक्लूसिव और वैल्यूएबल हैं, और उनकी डिमांड अचानक से बढ़ गई। ये ‘एंकरिंग’ का एक पावरफुल एग्ज़ाम्पल है। एक आर्बिट्रेरी प्राइस ने लोगों की परसेप्शन को चेंज कर दिया, और डिमांड क्रिएट कर दी। इसे एक डिस्काउंट के एग्ज़ाम्पल से समझते हैं। मान लीजिए, एक शर्ट की ओरिजिनल प्राइस ₹2000 है, और वो अभी ₹1500 में मिल रही है। ये एक अच्छा डिस्काउंट लगता है, क्योंकि हम ₹2000 को ‘एंकर’ की तरह यूज़ कर रहे हैं। लेकिन अगर उस शर्ट की एक्चुअल कॉस्ट ₹500 है, तो भी वो ₹1500 में बेची जा रही है, तो क्या वो सच में एक अच्छी डील है? एरीली कहते हैं कि हमें सिर्फ़ डिस्काउंट पर फोकस नहीं करना चाहिए, बल्कि ये भी देखना चाहिए कि एक्चुअल वैल्यू क्या है। तो दोस्तों, इस लेसन से हम सीखते हैं कि हमें सिर्फ़ सप्लाई और डिमांड पर ही रिलाई नहीं करना चाहिए, बल्कि ‘एंकरिंग’ के इम्पैक्ट को भी समझना चाहिए। यही है स्मार्ट परचेज़िंग डिसीज़न्स लेने का, और ‘इल्यूज़न्स’ में न फ़ँसने का रास्ता। जैसे एक मैग्नेट आयरन को अट्रैक्ट करता है, वैसे ही ‘एंकरिंग’ हमारे परचेज़िंग डिसीज़न्स को अट्रैक्ट कर सकती है।
लेसन 3 : द कॉस्ट ऑफ़ ज़ीरो कॉस्ट
दोस्तों, पिछले लेसन में हमने ‘सप्लाई एंड डिमांड इल्यूजन’ के बारे में बात की जो हमारे प्राइस परसेप्शन को इम्पैक्ट करता है। अब हम एक और इंटरेस्टिंग बिहेवियरल पैटर्न पर बात करेंगे जो हमारे डिसीज़न्स को इन्फ्लुएंस करता है – द कॉस्ट ऑफ़ ज़ीरो कॉस्ट, यानी शून्य लागत की कीमत। डैन एरीली हमें ये दिखाते हैं कि हम ‘फ़्री’ चीज़ों के लिए एक स्पेशल अट्रैक्शन रखते हैं, यानी जब कोई चीज़ ‘मुफ़्त’ में मिलती है, तो हम उसे लेने के लिए ज़्यादा इंक्लाइंड होते हैं, भले ही उसकी एक्चुअल वैल्यू कम हो। एरीली एक एग्ज़ाम्पल देते हैं एक चॉकलेट प्रोमोशन का। एक टेबल पर दो तरह की चॉकलेट्स रखी हुई थीं: एक Hershey’s Kiss जो 1 सेंट में मिल रही थी, और एक Lindt Truffle जो 15 सेंट में मिल रही थी। ज़्यादातर लोगों ने Lindt Truffle चूज़ की, क्योंकि वो ज़्यादा वैल्यूएबल लगती थी। फिर एरीली ने दोनों चॉकलेट्स की प्राइस 1 सेंट से कम कर दी, यानी Hershey’s Kiss फ़्री हो गई, और Lindt Truffle 14 सेंट में मिलने लगी। इंटरेस्टिंग बात ये थी कि अब ज़्यादातर लोगों ने फ़्री Hershey’s Kiss चूज़ की, भले ही Lindt Truffle अब भी रिलेटिवली चीप थी। ये ‘ज़ीरो कॉस्ट इफ़ेक्ट’ का एक क्लासिक एग्ज़ाम्पल है। ‘फ़्री’ की साइकोलॉजिकल पावर बहुत स्ट्रांग होती है, और ये हमें इर्रैशनल डिसीज़न्स लेने पर मजबूर कर सकती है। इसे एक ऑनलाइन शॉपिंग के एग्ज़ाम्पल से समझते हैं। मान लीजिए, एक वेबसाइट पर आपको ₹500 की शॉपिंग पर फ़्री शिपिंग मिल रही है। आपको शायद उस टाइम कुछ ऐसी चीज़ें भी खरीदनी पड़ें जिनकी आपको सच में ज़रूरत नहीं है, सिर्फ़ फ़्री शिपिंग पाने के लिए। ये ‘ज़ीरो कॉस्ट इफ़ेक्ट’ का एक प्रैक्टिकल एग्ज़ाम्पल है। हम ‘फ़्री’ चीज़ों के लिए ज़्यादा पे करने को भी रेडी हो जाते हैं, भले ही वो वर्थ इट न हो। एरीली कहते हैं कि हमें ‘फ़्री’ की साइकोलॉजी को समझना चाहिए, और ये देखना चाहिए कि क्या वो ऑफर सच में हमारे लिए वैल्यूएबल है या नहीं। तो दोस्तों, इस लेसन से हम सीखते हैं कि हमें सिर्फ़ ‘फ़्री’ के अट्रैक्शन पर ही फोकस नहीं करना चाहिए, बल्कि उस चीज़ की एक्चुअल वैल्यू को भी कंसीडर करना चाहिए। यही है स्मार्ट चॉइसेस बनाने का, और ‘फ़्री’ के ट्रैप में न फ़ँसने का रास्ता। जैसे एक मैग्नेट आयरन फ़िलिंग्स को अट्रैक्ट करता है, वैसे ही ‘फ़्री’ भी हमारे अटेंशन को अट्रैक्ट करता है, और हमें इर्रैशनल डिसीज़न्स लेने पर मजबूर कर सकता है।
लेसन 4 : द कॉस्ट ऑफ़ सोशल नॉर्म्स
दोस्तों, पिछले लेसन में हमने ‘ज़ीरो कॉस्ट इफ़ेक्ट’ के बारे में बात की जो हमें ‘फ़्री’ चीज़ों की तरफ़ अट्रैक्ट करता है। अब हम एक और इम्पोर्टेन्ट एस्पेक्ट पर बात करेंगे जो हमारे बिहेवियर को इन्फ्लुएंस करता है – द कॉस्ट ऑफ़ सोशल नॉर्म्स, यानी सामाजिक मानदंडों की कीमत। डैन एरीली हमें ये दिखाते हैं कि हमारे बिहेवियर को दो तरह के नॉर्म्स गाइड करते हैं: मार्केट नॉर्म्स और सोशल नॉर्म्स। मार्केट नॉर्म्स पैसों पर बेस्ड होते हैं, यानी एक्सचेंज, ट्रांजैक्शन्स, और पेमेंट्स। वहीं, सोशल नॉर्म्स रिलेशनशिप्स, केयर, और कम्युनिटी पर बेस्ड होते हैं। एरीली एक एग्ज़ाम्पल देते हैं एक डेकेयर सेंटर का। डेकेयर सेंटर में पेरेंट्स लेट आने पर फ़ाइन देना पड़ता था। शुरू में, जब फ़ाइन नहीं था, तो कुछ पेरेंट्स लेट आते थे, लेकिन जब फ़ाइन इंट्रोड्यूस किया गया, तो लेट आने वाले पेरेंट्स की संख्या बढ़ गई। ये इसलिए हुआ क्योंकि फ़ाइन ने एक सोशल नॉर्म को मार्केट नॉर्म में चेंज कर दिया। पहले, लेट आना एक सोशल ब्रीच था, यानी एक ग़लत बिहेवियर जिसके लिए गिल्ट फील होता था। लेकिन जब फ़ाइन इंट्रोड्यूस किया गया, तो ये एक मार्केट ट्रांजैक्शन बन गया, यानी पेरेंट्स फ़ाइन पे करके लेट आने का ‘राइट’ खरीद लेते थे। इसे एक फ़्रेंड की हेल्प के एग्ज़ाम्पल से समझते हैं। मान लीजिए, आपका एक फ़्रेंड आपको किसी काम में हेल्प करता है। अगर आप उसे थैंक यू कहते हैं, तो ये एक सोशल नॉर्म है। लेकिन अगर आप उसे पैसे ऑफर करते हैं, तो ये एक मार्केट नॉर्म बन जाएगा, और ये शायद आपके फ़्रेंडशिप को डैमेज कर सकता है। एरीली कहते हैं कि जब हम सोशल नॉर्म्स को मार्केट नॉर्म्स से रिप्लेस करते हैं, तो हम बहुत कुछ खो देते हैं, जैसे ट्रस्ट, लॉयल्टी, और कम्युनिटी। सोशल नॉर्म्स हमें एक-दूसरे से कनेक्ट करते हैं, और हमें एक सेंस ऑफ़ बिलॉन्गिंग देते हैं। वहीं, मार्केट नॉर्म्स हमें सेल्फिश और इंडिविजुअलिस्टिक बना सकते हैं। तो दोस्तों, इस लेसन से हम सीखते हैं कि हमें सोशल नॉर्म्स की वैल्यू को समझना चाहिए, और उन्हें मार्केट नॉर्म्स से रिप्लेस नहीं करना चाहिए। यही है हेल्दी रिलेशनशिप्स बनाने का, और एक स्ट्रांग कम्युनिटी क्रिएट करने का रास्ता। जैसे एक फ़ैमिली में लव और केयर सोशल नॉर्म्स होते हैं, वैसे ही एक सोसाइटी में ट्रस्ट और कोऑपरेशन सोशल नॉर्म्स होने चाहिए।
लेसन 5 : द इफ़ेक्ट ऑफ़ एक्साइटमेंट
दोस्तों, पिछले लेसन में हमने सोशल नॉर्म्स और मार्केट नॉर्म्स के बारे में बात की जो हमारे बिहेवियर को इन्फ्लुएंस करते हैं। अब हम एक और पावरफुल फ़ैक्टर पर बात करेंगे जो हमारे डिसीज़न्स को इम्पैक्ट करता है – द इफ़ेक्ट ऑफ़ एक्साइटमेंट, यानी उत्तेजना का प्रभाव। डैन एरीली हमें ये दिखाते हैं कि जब हम एक्साइटेड होते हैं, तो हम रैशनल थिंकिंग खो देते हैं, और हम इम्पल्सिव डिसीज़न्स लेने लगते हैं। एक्साइटमेंट हमें शॉर्ट-टर्म गेन्स पर फोकस कराता है, और लॉन्ग-टर्म कॉन्सिक्वेंसेज़ को इग्नोर कराता है। एरीली एक एग्ज़ाम्पल देते हैं इमोशनल बाइंग का। जब हम किसी चीज़ को देखकर बहुत एक्साइटेड हो जाते हैं, तो हम उसकी प्राइस, उसकी यूटिलिटी, या उसकी नीड पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते, हम सिर्फ़ उस मोमेंट के प्लेज़र पर फोकस करते हैं। ये एक कार खरीदने, एक नया गैजेट खरीदने, या एक वेकेशन प्लान करने में हो सकता है। इसे एक गैम्बलिंग के एग्ज़ाम्पल से समझते हैं। जब कोई गैम्बलिंग कर रहा होता है और जीतता है, तो वो बहुत एक्साइटेड हो जाता है, और वो ये भूल जाता है कि लॉन्ग रन में उसके हारने के चांसेज़ ज़्यादा हैं। एक्साइटमेंट उसे एक फ़ॉल्स सेंस ऑफ़ कंट्रोल देता है, और उसे ज़्यादा रिस्क लेने पर मजबूर करता है। एरीली कहते हैं कि एक्साइटमेंट सिर्फ़ नेगेटिव डिसीज़न्स की तरफ़ ही नहीं ले जाता, बल्कि ये पॉज़िटिव डिसीज़न्स को भी इम्पैक्ट कर सकता है। जब हम किसी चीज़ के बारे में बहुत पैशनेट होते हैं, तो हम ज़्यादा हार्ड वर्क करते हैं, ज़्यादा क्रिएटिव होते हैं, और ज़्यादा परसिस्टेंट होते हैं। लेकिन ये समझना ज़रूरी है कि एक्साइटमेंट को कंट्रोल में रखना चाहिए, ताकि ये हमें इर्रैशनल डिसीज़न्स की तरफ़ न ले जाए। तो दोस्तों, इस लेसन से हम सीखते हैं कि हमें अपने इमोशन्स को, स्पेशली एक्साइटमेंट को, अवेयर रहना चाहिए, और रैशनल थिंकिंग को मेंटेन करना चाहिए। यही है इम्पुल्सिव डिसीज़न्स अवॉइड करने का, और स्मार्ट चॉइसेस बनाने का रास्ता। जैसे एक ड्राइवर को अपनी स्पीड को कंट्रोल में रखना चाहिए, वैसे ही हमें भी अपने एक्साइटमेंट को कंट्रोल में रखना चाहिए।
लेसन 6: द प्रॉब्लम ऑफ़ प्रोक्रास्टिनेशन एंड सेल्फ-कंट्रोल
दोस्तों, पिछले लेसन में हमने एक्साइटमेंट के इफ़ेक्ट के बारे में बात की जो हमारे डिसीज़न्स को प्रभावित करता है। अब हम एक और कॉमन ह्यूमन बिहेवियर पर बात करेंगे जो हमारी प्रोडक्टिविटी और सक्सेस को इम्पैक्ट करता है – द प्रॉब्लम ऑफ़ प्रोक्रास्टिनेशन एंड सेल्फ-कंट्रोल, यानी टालमटोल और आत्म-नियंत्रण की समस्या। डैन एरीली हमें ये दिखाते हैं कि हम अक्सर उन कामों को टालते रहते हैं जो अनप्लेजेंट होते हैं, डिफ़िकल्ट होते हैं, या लॉन्ग-टर्म बेनिफिट्स देते हैं। हम शॉर्ट-टर्म प्लेज़र्स को ज़्यादा प्रायोरिटी देते हैं, भले ही हमें पता हो कि लॉन्ग रन में ये हमारे लिए हार्मफुल होगा। एरीली एक एग्ज़ाम्पल देते हैं प्रोक्रास्टिनेशन के क्लासिक एग्ज़ाम्पल का – एग्ज़ाम की पढ़ाई टालना। स्टूडेंट्स अक्सर एग्ज़ाम से पहले लास्ट मोमेंट तक पढ़ाई नहीं करते, भले ही उन्हें पता हो कि पहले से पढ़ाई करना ज़्यादा बेनिफिशियल होगा। वो शॉर्ट-टर्म प्लेज़र्स में इंडल्ज करते हैं, जैसे टीवी देखना, सोशल मीडिया यूज़ करना, या फ़्रेंड्स के साथ हैंगआउट करना। इसे एक डाइट के एग्ज़ाम्पल से समझते हैं। हम अक्सर अपनी डाइट को मंडे से शुरू करने का प्लान बनाते हैं, लेकिन वीकेंड पर हम अनहेल्दी फ़ूड में इंडल्ज करते हैं, ये जानते हुए भी कि ये हमारी हेल्थ के लिए अच्छा नहीं है। ये ‘प्रेज़ेंट बायस’ का एक एग्ज़ाम्पल है, यानी हम प्रेजेंट के प्लेज़र्स को फ्यूचर के बेनिफिट्स से ज़्यादा वैल्यू देते हैं। एरीली कहते हैं कि सेल्फ-कंट्रोल एक लिमिटेड रिसोर्स है, यानी हम एक टाइम पर सिर्फ़ लिमिटेड अमाउंट ऑफ़ सेल्फ-कंट्रोल यूज़ कर सकते हैं। जब हम थक जाते हैं, स्ट्रेस्ड होते हैं, या डिस्ट्रैक्टेड होते हैं, तो हमारा सेल्फ-कंट्रोल कम हो जाता है, और हम प्रोक्रास्टिनेट करने लगते हैं। वो कहते हैं कि हमें ऐसे स्ट्रेटेजीज़ यूज़ करनी चाहिए जो हमें प्रोक्रास्टिनेशन से बचाएँ, जैसे डेडलाइन्स सेट करना, रिवार्ड सिस्टम क्रिएट करना, या डिस्ट्रैक्शन्स को मिनिमाइज़ करना। तो दोस्तों, इस लेसन से हम सीखते हैं कि हमें प्रोक्रास्टिनेशन की साइकोलॉजी को समझना चाहिए, और सेल्फ-कंट्रोल को इम्प्रूव करने के लिए स्ट्रेटेजीज़ यूज़ करनी चाहिए। यही है ज़्यादा प्रोडक्टिव बनने का, और अपने गोल्स को अचीव करने का रास्ता। जैसे एक एथलीट ट्रेनिंग करके अपनी परफॉर्मेंस को इम्प्रूव करता है, वैसे ही हम भी सेल्फ-कंट्रोल प्रैक्टिस करके प्रोक्रास्टिनेशन को ओवरकम कर सकते हैं।
लेसन 7 : द हाई प्राइस ऑफ़ ओनरशिप
दोस्तों, पिछले लेसन में हमने प्रोक्रास्टिनेशन और सेल्फ-कंट्रोल की समस्या पर बात की। अब हम एक और इंटरेस्टिंग बिहेवियरल पैटर्न पर बात करेंगे जो हमारे डिसीज़न्स को इन्फ्लुएंस करता है – द हाई प्राइस ऑफ़ ओनरशिप, यानी स्वामित्व की ऊँची कीमत। डैन एरीली हमें ये दिखाते हैं कि जब हम किसी चीज़ के ओनर बन जाते हैं, तो हम उसे ज़्यादा वैल्यू देने लगते हैं, भले ही उसकी एक्चुअल वैल्यू कम हो। ये ‘एंडोमेंट इफ़ेक्ट’ कहलाता है, यानी हम अपनी पोज़ेशन्स को ज़्यादा इंपॉर्टेंस देते हैं। एरीली एक एग्ज़ाम्पल देते हैं एक बास्केटबॉल टिकट का। जब स्टूडेंट्स को एक लॉटरी के थ्रू बास्केटबॉल टिकट मिलता है, तो वो उसे बहुत ज़्यादा प्राइस में बेचने को रेडी होते हैं। वहीं, जो स्टूडेंट्स लॉटरी में टिकट नहीं जीत पाते, वो उस टिकट को कम प्राइस में खरीदने को रेडी होते हैं। ये इसलिए होता है क्योंकि जिन स्टूडेंट्स को टिकट मिला है, वो उसे ‘ओन’ करते हैं, और इसलिए उसे ज़्यादा वैल्यू देते हैं। इसे एक ऑनलाइन सेलिंग के एग्ज़ाम्पल से समझते हैं। मान लीजिए, आप अपनी कोई पुरानी चीज़ ऑनलाइन बेच रहे हैं। आप शायद उसे उस प्राइस में बेचना चाहेंगे जो आपको लगता है कि वो डिज़र्व करती है, भले ही मार्केट में उसकी प्राइस कम हो। ये ‘ओनरशिप इफ़ेक्ट’ का एक प्रैक्टिकल एग्ज़ाम्पल है। हम अपनी चीज़ों से इमोशनली अटैच हो जाते हैं, और इसलिए उन्हें ज़्यादा वैल्यू देते हैं। एरीली कहते हैं कि ‘ओनरशिप’ सिर्फ़ फिजिकल पोज़ेशन्स तक ही लिमिटेड नहीं है, बल्कि ये आइडियाज़, ओपिनियंस, और रिलेशनशिप्स पर भी अप्लाई होता है। जब हम किसी आइडिया को ‘ओन’ करते हैं, तो हम उसे क्रिटिसाइज़ करने के लिए कम रेडी होते हैं। जब हम किसी रिलेशनशिप को ‘ओन’ करते हैं, तो हम उसे छोड़ने के लिए कम रेडी होते हैं, भले ही वो टॉक्सिक हो। तो दोस्तों, इस लेसन से हम सीखते हैं कि हमें ‘ओनरशिप’ के इम्पैक्ट को समझना चाहिए, और ऑब्जेक्टिवली डिसीज़न्स लेने की कोशिश करनी चाहिए। यही है इर्रैशनल बायसेस से बचने का, और स्मार्ट चॉइसेस बनाने का रास्ता। जैसे एक पैरेंट अपने बच्चे को ज़्यादा वैल्यू देता है, वैसे ही हम भी अपनी पोज़ेशन्स को ज़्यादा वैल्यू देते हैं, लेकिन हमें इस बायस को कंट्रोल में रखना चाहिए।
लेसन 8 : कीपिंग डोर्स ओपन
दोस्तों, पिछले लेसन में हमने ‘ओनरशिप’ के इफ़ेक्ट के बारे में बात की जो हमारे डिसीज़न्स को प्रभावित करता है। अब हम एक और इंटरेस्टिंग ह्यूमन टेन्डेन्सी पर बात करेंगे – कीपिंग डोर्स ओपन, यानी दरवाजे खुले रखना। डैन एरीली हमें ये दिखाते हैं कि हम अक्सर मल्टीपल ऑप्शन्स अवेलेबल रखना चाहते हैं, भले ही हमें पता हो कि हमें सिर्फ़ एक ही ऑप्शन चूज़ करना है। हम ये डरते हैं कि अगर हमने एक ऑप्शन चूज़ कर लिया, तो हम बाकी ऑप्शन्स के बेनिफिट्स मिस कर देंगे। ये ‘ऑप्शन पैराडॉक्स’ कहलाता है, यानी ज़्यादा ऑप्शन्स होने से हमें ज़्यादा ख़ुशी नहीं मिलती, बल्कि ज़्यादा स्ट्रेस और एंजायटी मिलती है। एरीली एक एग्ज़ाम्पल देते हैं एक ऑनलाइन डेटिंग वेबसाइट का। जब लोगों को बहुत सारे प्रोफ़ाइल्स दिखाए जाते हैं, तो वो एक प्रोफ़ाइल चूज़ करने में ज़्यादा डिफ़िकल्टी फ़ील करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि शायद कोई और बेटर प्रोफ़ाइल अवेलेबल हो। वो लगातार प्रोफ़ाइल्स स्क्रॉल करते रहते हैं, और किसी एक पर फोकस नहीं कर पाते। इसे एक करियर चॉइस के एग्ज़ाम्पल से समझते हैं। मान लीजिए, आप ग्रेजुएट होने वाले हैं, और आपके पास दो जॉब ऑफर्स हैं। आप दोनों ऑफर्स को एक्सेप्ट करना चाहते हैं, क्योंकि आप किसी एक को छोड़ना नहीं चाहते। आप ये सोचते रहते हैं कि शायद एक जॉब दूसरे से ज़्यादा बेटर हो, और आप किसी एक पर डिसीज़न नहीं ले पाते। एरीली कहते हैं कि ‘कीपिंग डोर्स ओपन’ हमें शॉर्ट-टर्म प्लेज़र दे सकता है, लेकिन लॉन्ग रन में ये हमें अनहैप्पी बना सकता है। जब हम मल्टीपल ऑप्शन्स पर फोकस करते हैं, तो हम किसी एक चीज़ में कमिट नहीं कर पाते, और हम किसी भी चीज़ का पूरा बेनिफिट नहीं ले पाते। वो कहते हैं कि हमें ये सीखना चाहिए कि कब एक डिसीज़न लेना है, और बाकी ऑप्शन्स को छोड़ देना है। यही है ज़्यादा फ़ोकस्ड रहने का, और ज़्यादा सेटिस्फैक्शन पाने का रास्ता। तो दोस्तों, इस लेसन से हम सीखते हैं कि हमें ‘कीपिंग डोर्स ओपन’ के ट्रैप में नहीं फ़ँसना चाहिए, और कॉन्फिडेंटली डिसीज़न्स लेने चाहिए। जैसे एक ट्रेवलर को एक डेस्टिनेशन चूज़ करनी होती है, वैसे ही हमें भी अपनी लाइफ में प्रायोरिटीज़ सेट करनी चाहिए और एक डायरेक्शन में मूव करना चाहिए।
लेसन 9 : द पावर ऑफ़ एक्सपेक्टेशन
दोस्तों, पिछले लेसन में हमने ‘कीपिंग डोर्स ओपन’ के बारे में बात की जो हमें डिसीज़न्स लेने में हेज़िटेंट बना सकता है। अब हम एक और पावरफुल फ़ैक्टर पर बात करेंगे जो हमारे परसेप्शन्स और एक्सपीरियंसेस को इन्फ्लुएंस करता है – द पावर ऑफ़ एक्सपेक्टेशन, यानी अपेक्षा की शक्ति। डैन एरीली हमें ये दिखाते हैं कि हमारी एक्सपेक्टेशन्स हमारे एक्सपीरियंसेस को शेप करती हैं, यानी हम जैसा एक्सपेक्ट करते हैं, वैसा ही एक्सपीरियंस करते हैं, भले ही रियलिटी कुछ और हो। ये ‘प्लेसीबो इफ़ेक्ट’ का एक टाइप है, यानी जब हम किसी चीज़ पर बिलीव करते हैं, तो वो हमें इफ़ेक्ट करती है, भले ही उसमें कोई एक्चुअल मेडिसिनल वैल्यू न हो। एरीली एक एग्ज़ाम्पल देते हैं बियर टेस्ट का। लोगों को दो तरह की बियर दी जाती हैं: एक रेगुलर बियर और एक जिसमें थोड़ा सा बाल्सामिक विनेगर मिलाया गया था। लेकिन लोगों को ये नहीं बताया गया था कि किस बियर में विनेगर है। जब लोगों को नहीं पता था, तो उन्हें दोनों बियर का टेस्ट ऑलमोस्ट सेम लगा। लेकिन जब लोगों को बताया गया कि एक बियर में विनेगर है, तो उन्हें उस बियर का टेस्ट बहुत ख़राब लगा। ये ‘एक्सपेक्टेशन इफ़ेक्ट’ का एक क्लासिक एग्ज़ाम्पल है। लोगों की एक्सपेक्टेशन ने उनके टेस्ट परसेप्शन को चेंज कर दिया। इसे एक मूवी के एग्ज़ाम्पल से समझते हैं। मान लीजिए, आप एक मूवी देखने जा रहे हैं, और आपके फ़्रेंड्स ने आपको बताया है कि वो मूवी बहुत ही बोरिंग है। आपकी एक्सपेक्टेशन नेगेटिव होगी, और शायद आपको मूवी सच में बोरिंग लगेगी, भले ही वो एक्चुअली अच्छी हो। एरीली कहते हैं कि एक्सपेक्टेशन्स सिर्फ़ टेस्ट और एंटरटेनमेंट को ही नहीं, बल्कि हर तरह के एक्सपीरियंस को इम्पैक्ट कर सकती हैं, जैसे एजुकेशन, हेल्थ, और रिलेशनशिप्स। जब हम किसी चीज़ से पॉज़िटिव एक्सपेक्टेशन्स रखते हैं, तो हम ज़्यादा ओपन होते हैं, ज़्यादा रिसेप्टिव होते हैं, और ज़्यादा पॉज़िटिव एक्सपीरियंस करते हैं। तो दोस्तों, इस लेसन से हम सीखते हैं कि हमें अपनी एक्सपेक्टेशन्स को अवेयर रहना चाहिए, और उन्हें रियलिटी को ब्लाइंड नहीं करना चाहिए। यही है ऑब्जेक्टिवली एक्सपीरियंस करने का, और पॉज़िटिव आउटकम्स क्रिएट करने का रास्ता। जैसे एक लेंस हमारी विज़न को फ़ोकस करता है, वैसे ही एक्सपेक्टेशन्स हमारे एक्सपीरियंसेस को फ़ोकस कर सकती हैं, लेकिन हमें ये ध्यान रखना चाहिए कि वो रियलिटी को डिस्टॉर्ट न करें।
लेसन 10 : द पावर ऑफ़ प्राइस ऑफ़ आइडेंटिटी
दोस्तों, पिछले लेसन में हमने ‘एक्सपेक्टेशन’ की पावर के बारे में बात की जो हमारे एक्सपीरियंसेस को शेप करती है। अब हम एक और डीपली रूटेड ह्यूमन नीड पर बात करेंगे जो हमारे बिहेवियर को इन्फ्लुएंस करती है – द पावर ऑफ़ प्राइस ऑफ़ आइडेंटिटी, यानी पहचान की कीमत की शक्ति। डैन एरीली हमें ये दिखाते हैं कि हम अपनी आइडेंटिटी को मेंटेन करने के लिए, या एक स्पेसिफिक ग्रुप से बिलॉन्ग करने के लिए, बहुत कुछ करने को रेडी होते हैं, यहाँ तक कि इर्रैशनल डिसीज़न्स भी लेने को तैयार हो जाते हैं। हम अपनी आइडेंटिटी को एक्सटर्नल सिम्बल्स से कनेक्ट करते हैं, जैसे क्लोथ्स, कार्स, या अदर पोज़ेशन्स, और हम इन सिम्बल्स के थ्रू दूसरों को ये बताते हैं कि हम कौन हैं, हमारी वैल्यूज़ क्या हैं, और हम किस ग्रुप से बिलॉन्ग करते हैं। एरीली एक एग्ज़ाम्पल देते हैं ब्रांडेड क्लोथ्स का। लोग अक्सर सेम डिज़ाइन के क्लोथ्स नॉन-ब्रांडेड वर्ज़न से ज़्यादा प्राइस में खरीदते हैं, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उन पर एक स्पेसिफिक ब्रांड का लेबल लगा होता है। ये ब्रांड उन्हें एक स्पेसिफिक आइडेंटिटी देता है, एक स्टेटस देता है, और वो इस आइडेंटिटी के लिए ज़्यादा पे करने को रेडी होते हैं। इसे एक स्पोर्ट्स टीम के एग्ज़ाम्पल से समझते हैं। लोग अपनी फ़ेवरेट स्पोर्ट्स टीम के मर्चेंडाइज़ पर बहुत पैसे खर्च करते हैं, जैसे जर्सी, कैप्स, और स्कार्फ़्स। ये मर्चेंडाइज़ उन्हें अपनी टीम के साथ कनेक्ट करता है, उन्हें एक सेंस ऑफ़ बिलॉन्गिंग देता है, और वो इस बिलॉन्गिंग के लिए ज़्यादा पे करने को रेडी होते हैं। एरीली कहते हैं कि आइडेंटिटी सिर्फ़ एक्सटर्नल सिम्बल्स तक ही लिमिटेड नहीं है, बल्कि ये इंटरनल वैल्यूज़, बिलीफ़्स, और ओपिनियंस पर भी बेस्ड होती है। जब हम किसी चीज़ में स्ट्रांगली बिलीव करते हैं, तो हम उस बिलीफ़ को डिफ़ेंड करने के लिए, या उसे एक्सप्रेस करने के लिए, बहुत कुछ करने को रेडी होते हैं। तो दोस्तों, इस लेसन से हम सीखते हैं कि हमें अपनी आइडेंटिटी की साइकोलॉजी को समझना चाहिए, और ये देखना चाहिए कि क्या हम अपनी आइडेंटिटी को मेंटेन करने के लिए इर्रैशनल डिसीज़न्स तो नहीं ले रहे। यही है ज़्यादा कॉन्शियस चॉइसेस बनाने का, और अपनी वैल्यूज़ के साथ अलाइन रहने का रास्ता। जैसे एक एक्टर एक रोल प्ले करता है, वैसे ही हम भी अपनी लाइफ में अलग-अलग रोल्स प्ले करते हैं, और हमें ये ध्यान रखना चाहिए कि हम अपनी ट्रू सेल्फ से डिस्कनेक्ट न हों।
तो दोस्तों, ये थे डैन एरीली की “प्रिडिक्टेबली इर्रैशनल” के दस पावरफुल लेसन्स। हमने सीखा कि कैसे रिलेटिविटी, एंकरिंग, फ़्री का अट्रैक्शन, सोशल नॉर्म्स, एक्साइटमेंट, प्रोक्रास्टिनेशन, ओनरशिप, ऑप्शन्स, एक्सपेक्टेशन्स, और आइडेंटिटी हमारे डिसीज़न्स को इन्फ्लुएंस करते हैं, और हमें इर्रैशनल बना सकते हैं। ये सिर्फ़ एक किताब की समरी नहीं, बल्कि एक गाइड है अपनी सोच को समझने की, अपने बिहेवियर को इम्प्रूव करने की, और स्मार्ट चॉइसेस बनाने की। उम्मीद है कि आपको ये समरी पसंद आयी होगी और आपको कुछ नया सीखने को मिला होगा। अगर आपको ये समरी अच्छी लगी तो इसे लाइक और शेयर करें। मिलते हैं अगले समरी में, तब तक के लिए, बी मोर रैशनल!
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